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ईसाई मिशनरियां बेलगाम: भारत में मिशनरी संगठनों के धर्मांतरण अभियान में निशाने पर दलित-आदिवासी

[ शंकर शरण ]: धर्मांतरण में लिप्त 13 गैर सरकारी संगठनों की विदेशी फंडिंग के लाइसेंस निलंबित किए जाने के गृह मंत्रालय के फैसले के बाद संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन सांसद संजय सेठ की ओर से जिस तरह झारखंड में आदिवासियों के धर्मांतरण का मसला उठाया गया, उससे यही पता चलता है कि ईसाई मिशनरियां किस तरह बेलगाम हैं। भारत में धर्मांतरण के अग्रदूत ईसाई मिशनरी ही हैं। पुर्तगाली काफिले के साथ भारत आए ईसाई मत के प्रचारक फ्रांसिस जेवियर ने कहा था कि ब्राह्मण लोग शैतानी भूतों के साथ सहयोग रखते हुए हिंदुओं पर अपना प्रभाव रखते हैं, इसलिए हिंदुओं को ईसाइयत का प्रकाश देने हेतु ब्राह्मणों का प्रभाव तोड़ना प्राथमिकता होनी चाहिए।जेवियर ने बल प्रयोग की भी खुली वकालत की, पर पुर्तगाली औपनिवेशिक शासकों ने उन्हें उतनी सेना नहीं दी जितनी वे चाहते थे, फिर भी जेवियर ने बड़े पैमाने पर गोवा में जुल्म ढाए। हिंदू मंदिरों को तोड़े जाने से मिली खुशी का उन्होंने स्वयं वर्णन किया। उनका पहला निशाना ब्राह्मण थे। इसीलिए हिंदू राजा पुर्तगालियों से संधि करते समय स्पष्ट लिखवाते थे कि वे ब्राह्मणों को नहीं मारेंगे, लेकिन मिशनरियों का गंभीर प्रहार वैचारिक था, जिसके दुष्प्रभाव आज और बढ़ गए हैं। निरंतर प्रचार ने आम यूरोपीय और भारतीय विमर्श में ऐसी विषैली बातें प्रवेश करा दीं, जिसे विविध राजनीतिक स्वार्थ हिंदुओं के विरुद्ध इस्तेमाल करते हैं। कथित सेक्युलर, मार्क्सवादी, इस्लामी और कुछ क्षेत्रीय दल जिन ब्राह्मण-द्वेषी बातों को स्वयंसिद्ध मानते हैं, उनकी शुरुआत मिशनरी प्रकाशनों से हुई। डॉ. कूनराड एल्स्ट ने विश्व इतिहास में यहूदी-विरोध के सिवा ब्राह्मण-विरोध ही मिशनरियों का सबसे बड़ा दुष्प्रचार अभियान बताया।

मिशनरी ब्राह्मणों को मिटाने पर एकमत थे

विविध मिशनरी ब्राह्मणों को मिटाने पर एकमत थे। उनमें मतभेद केवल तरीकों को लेकर मिलता है। जैसे रॉबर्ट दे नोबिली बल प्रयोग के बदले धोखाधड़ी को उपयुक्त मानते थे। वह ब्राह्मणों वाले पहनावे में अपने को रोमन ब्राह्मण बताते हुए येशुर्वेद यानी जीससवेद को पांचवा वेद कहते थे। ऐसी धोखे की विधियां आज कई मिशनरी धाराओं द्वारा जमकर इस्तेमाल हो रही हैं। हिंदू मंदिरों में जीसस या मैरी की फोटो लगा देना, चर्चों को हिंदू डिजाइन देकर भोले हिंदुओं को फंसाकर ले जाना और उन्हें ईसाई अनुष्ठानों से जोड़ने और हिंदू व्यवहार से तोड़ने के तरीके जमकर अपनाए जा रहे हैं।

ब्राह्मणों को धर्मांतरित करा लें तो फिर आम हिंदुओं को ईसाई बनाना आसान

नोबिली की कल्पना थी कि किसी तरह पहले ब्राह्मणों को धर्मांतरित करा लें तो फिर आम हिंदुओं को ईसाई बनाना आसान रहेगा। चीन, जापान, कोरिया में उनकी ऐसी तिकड़म कुछ कारगर भी रही थी। पहले मिशनरियों ने निम्न-वर्ग के पक्षधर होने के विपरीत नीति रखी थी, क्योंकि तब यूरोप में राजनीतिक समानता का कोई मूल्य नहीं था। सेंट पॉल ने गुलामी प्रथा का सक्रिय समर्थन किया था। पोप ग्रिगोरी पंद्रहवें ने भारत में चर्च में जाति-भेद रखने की बाकायदा मान्यता दी थी। 18-19वीं सदी तक चर्च ने समानता के विचार का कड़ा विरोध किया। यह तो पिछले डेढ़ सौ साल की बात है कि जब समाजवादी हवा ने दुनिया पर असर डाला तब चर्च ने रंग बदलकर अपने को शोषित-पीड़ित समर्थक बताना शुरू किया।

गोवा में कई चर्च आज भी उच्च जाति और निम्न जाति के लोगों के लिए दरवाजे अलग हैं

भारत में भी मिशनरियों में सौ सवा-सौ साल पहले तक निम्न जातियों के प्रति चिंता जैसा कोई संकेत तक नहीं मिलता, जिसका आज वे दावा करते हैं। गोवा में कई चर्च आज भी उच्च जाति और निम्न जाति के लोगों के लिए आने-जाने के अलग दरवाजे रखते हैं। ऐसी चीज किसी हिंदू मंदिर में नहीं है। भारत में सक्रिय मिशनरी संस्थाएं अपनी शैक्षिक, बौद्धिक गतिविधियों में उसी हद तक दलित-आदिवासी पक्षी हैं, जहां तक यह हिंदू धर्म-समाज को तोड़ने में सहायक हो। वे डॉ. आंबेडकर का उपयोग भी अपने स्वार्थ के लिए करती हैं, लेकिन आर्य-अनार्य सिद्धांत, बुद्ध धर्म का विध्वंस, हिंदू-मुस्लिम मुद्दों आदि पर वे उनकी बातें नितांत उपेक्षित करते हैं।

भारत में सेंट थॉमस या जेवियर ने बल प्रयोग और छल-प्रपंच का प्रयोग कर जमीन फैलाई

भारत में सेंट थॉमस या जेवियर समानता का संदेश लेकर नहीं आए थे। उन्होंने बल प्रयोग और छल-प्रपंच का प्रयोग कर जमीन फैलाई। इसमें दलित-आदिवासी समूह उसी तरह मोहरे हैं, जैसे पहले उन्होंने ब्राह्मणों को बनाने की कोशिश की थी। उसमें नाकामी के कारण ही उनका ब्राह्मण-विद्वेष और बढ़ा। झूठे प्रचार से ही हम जातियों के बारे में नकारात्मक बातें ही सुनते हैं। जाति में सुरक्षा, सहयोग, परिवार भावना लुप्त कर दी जाती है। इसके साक्ष्य कई ब्रिटिश सर्वेक्षणों में है। सभी जातियों का अपना-अपना गौरव था। उनमें हीनता की भावना नहीं थी, जिसका अतिरंजित प्रचार होता है। वस्तुत: जातियों के कारण भी हिंदू इस्लाम और ईसाइयत के धर्मांतरणकारी हमले झेलकर बचे रह सके।

मिशनरी संस्थानों में भारतीय इतिहास का विकृत पाठ पढ़ाया जाता है

हमारी हालत पश्चिम एशिया जैसी नहीं हुई, जहां की सभ्यताएं इस्लाम ने कुछ ही वर्ष में नष्ट कर दीं। गत सौ साल से मिशनरियों की खुली नीति दलितों और वनवासियों को मुख्य निशाना बनाना है, क्योंकि दूसरी जातियों में उनकी दाल नहीं गली। इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणों के विरुद्ध अधिक दुष्प्रचार किया, ताकि उन्हें निम्न जातियों का शोषक बताकर खुद को संरक्षक दिखा सकें। मिशनरी संस्थानों में भारतीय इतिहास का विकृत पाठ पढ़ाया जाता है, ताकि ब्राह्मण-विरोधी भावना पुष्ट हो सके। निरंतर प्रचार से बच्चे और युवा झूठी बातें मान लेते हैं। वे नहीं जानते कि हमारे महान कवियों, ज्ञानियों और संतों में हर जाति के लोग रहे हैं। शिक्षा में ब्राह्मण-विरोध भरर्ना ंहदू-विरोध का ही छद्म रूप है।

ब्राह्मणों ने जबरन धर्मांतरित कराए गए मुस्लिमों, ईसाइयों को वापस हिंदू बनाने के काम किए

चूंकि ब्राह्मणों ने जबरन धर्मांतरित कराए गए मुस्लिमों, ईसाइयों को वापस हिंदू बनाने के काम किए, इसीलिए मिशनरी संगठनों ने उन्हें खास तौर पर निशाने पर लिया। दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में मिशनिरयों का काम और सहज हो गया। हमारे सेक्यूलर-वामपंथी अंग्रेजीदां बौद्धिक वर्ग ने उन्हें विशिष्ट आदर और सहूलियतें दीं। कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने हिंदू धर्म को नकारने के लिए ब्राह्मणवाद को निशाना बनाया। जातिवादी नेताओं ने अपने वोट-बैंक को मूर्ख बनाने हेतु ब्राह्मणों को निशाने पर लिया। इस प्रकार चौतरफा दुष्प्रचार से कथित हिंदूवादी भी मिशनरियों का रौब खाने लगे। वे स्वामी विवेकानंद का यह मूल्यांकन भी भूल गए कि ‘ब्राह्मण ही हमारे पूर्वपुरुषों के आदर्श थे।’ हमारे शास्त्रों में ब्राह्मण का आदर्श विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित है। भारत के बड़े से बड़े राजाओं के वंशधर यह कहने की चेष्टा करते हैं कि ‘हम अमुक कौपीनधारी, सर्वस्वत्यागी, वनवासी, फल-मूलाहारी और वेदपाठी ऋषि की संतान हैं।’

( लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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