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शहर की सरगम…. सैयां भए कोतवाल फिर डर काहे का?

भ्रष्टाचार रोकने कानून तो बनाए गए फिर भी जनता को राहत नहीं

*दीपक बुद्धदेव*


‘‘छोटा मुंह बड़ी बात’’ ऐसा न समझो तो पत्रकार भैया, मुझे एक बात आप से कहनी है। कहूं, कह ही देता हूं। ढाबा वाले ने कहा- एक साहब खाकी वाले यहां बड़़ पद पर थे। कुछ महिनों में ही उनका तबादला हो गया, क्यों भैया? जानते हो। वे ईमानदार और सख्त मिजाज के थे। वे जितने भी समय रहे तब तक जुवांडिय़ों, सटौरियों, तस्करियों की नींद हराम हो गई थी। उनहें संरक्षण देने वाले स्थानीय सत्ताधारी नेता तक तो ‘‘लेव्ही’’ पहुंचना ही बंद हो गई थी। ऐसा कब तक चलता? रसूखदार नेता ने हाईकमान के कानों में ऐसी फूंक मारी कि अच्छे आदमी को यहां से चलता कर दिया। बताओं भैया, क्या यह सही है? देखो भाई, तुम केवल ढाबा चलाओ। यह सब सोचना बंद कर दो। राजनीति में धननीति भी समाहित होती है। सत्ता मिलते ही इस नीति पर चलना शुरू हो जाता है। तुम नहीं समझोगे। खाना तुम अच्छा बनाते हो! थोड़ी सब्जी की तरी देना, शहरवासी ने बात ही बदल दी।

बाबूलाल बोला- सैयां भए कोतवाल तो फिर डर काहे का? लगता है, ये मुहावरा हमारे देश में अमरत्व तक पहुंच रहा है। देखो न, आजादी का 75 वां वर्ष याने अमृत महोत्सव अंतिम चरण में है। लेकिन, भ्रष्टाचार तथा अन्य बुराइयों में ‘‘दिन दुगूनी, रात चौगुनी’’ वृद्धि हुई है। प्रशासन और उसमें हुए सुधार भी इसको रोकने में असफल हुए हैं। सुधार से ताप्तर्य प्रशासन में सुनियोजित परिवर्तन लाना होता है। नो डाउप्ट! प्रशासन की क्षमता में बहुत वृद्धि हुई है, वैधानिक परिवर्तन भी हुए हैं। जनता को भी ‘‘सूचना का अधिकार’’ प्राप्त है। सरकारी विभागों को जनता के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए सिटिजंस चार्टर कानून आया है। इसके बावजुद, भ्रष्टाचार कम न होकर बढ़ता ही जा रहा है। अब इसे क्या कहा जाए? अफसरशाही की निरकुंशता में राजनीतिज्ञ शासन, खास कर जवाबदार है। पहले आर.टी.आई. और अब सिटिजंस चार्टर विधेयक सकारात्मक परिवर्तन नहीं दिखा रहा है। जन शिकायतों का भी निर्धारित समय सीमा में निवारण नहीं होता। समझा व माना गया था कि, उक्त दोनों विधेयक प्रशासन को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाने में ‘‘मील का पत्थर’’ साबित होंगे। साथ ही, इस प्रक्रिया से उम्मीद भी थी कि जो भ्रष्टाचार आम आदमी के दैनिक जीवन को प्रभावित करता है, उस पर किसी हद तक अंकुश लगेगा। अब, सर्वे होना चाहिए कि उक्त कानूनी विधेयकों से जनता को क्या लाभ हासिल हुआ है?
देखो बाबूलाल, विभागों में बाबूराज है। अधिकारी तो वर्किंग अवर में आफिस में बैठता ही नहीं है। जरूरी फाइलों को शाम को निपटाया जाता है। अफसर भी केलकुलेट करता है। कितना देकर आया था? कितना वसूल हुआ? टारगेट क्या है? इसलिए, सर्वे-वर्वे के कोई मायने नहीं है।

० बूढ़ा न जवान हुआ और न रानी को सही राजा मिला
० दोनों सागरों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन?

भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर विपक्ष सत्ता तक पहुंचने की भारी मशक्कत करता है। मशक्कत कामयाब होने पर सत्ता प्राप्त करता है। सत्तासीन होते ही वह भी भ्रष्टाचार की अथाह गहराई में गोते लगाना अब पहला काम मानता है। अब देखो न? रियासतकालीन बूढ़ा सागर भ्रष्टाचार का टानिक लेकर खबरों में सदा जवान बने रहता है। कभी सरोवर-धरोहर तो सौन्दर्यीकरण के नाम पर बूढ़ सागर जमीनी हकीकत में जवान नहीं हुआ। विपक्ष इसमें बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहा है। ऐसी ही पिक्चर रानी सागर की भी है। विपक्ष के आरोप ने हंगामा बरपाया तो निगम प्रशासन ने उसकी जांच के निर्देश दिए। जांच टीम में पक्ष-विपक्ष के दोनों नेताओं, निगम के अमले भी शामिल थे। जांच दौरान भी विपक्ष असन्तुष्ट रहा। बकौल विपक्ष की अमले ने जांच में सहयोग नहीं किया। प्राक्कलन के तकनीकी पहलुओं को ही नजर अंदाज कर दिया। बहरहाल, निगम अमले ने जांच प्रतिवेदन निगम प्रशासन को प्रेषित कर दिया है। प्रशासन के पास प्रतिवेदन ठण्डागार में रहा। निगम की एम.आई.सी. तक भी प्रतिवेदन पहुंचा है। अब उसमें निर्णय हुआ है कि जांच रिपोर्ट निगम की सामान्य सभा में सार्वजनिक होगी। अब, इंतजार…. इंतजार… इंतजार ही करें कि खोदे पहाड़ से चूहिया निकलती है या शेर? इशारों को अगर समझों तो राज को राज रहने दो। और, इससे अधिक कुछ नहीं।

छात्रों की कामयाबी पर फख्र पर जॉब कहां है?
देश भर का युवा शिक्षित तो होता जा रहा है लेकिन नौकरियों की कमी ने अच्छ रिजल्ट के बावजुद उन्हें बेरोजगार बना रखा है। ऐसा ही रहा तो देश के विश्वगुरू बनने का सपना हवाई बन कर रह जाएगा। शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार का विकल्प उपलब्ध नहीं हुआ तो इसकी बढ़ती तादाद चिंताजनक हालात पैदा कर देगी।

सीबीएसई का 12 वीं कक्षा का रिजल्ट आया। 13 लाख से अधिक विद्यार्थियों ने यह परीक्षा पास की। 12 वीं कक्षा में 92 प्रतिशत से अधिक बच्चें पास हुवे। जिसमें 94.54 प्रतिशत छात्राएं और 91.25 प्रतिशत छात्र हैं। स्थानीय गायत्री स्कूल की अंकिता गुप्ता ने सर्वाधिक 98.4 अंक प्राप्त कर कमाल कर दिया। युगान्तर, नीरज पब्लीक, दिल्ली पब्लिक स्कूलों का भी रिजल्ट शानदार रहा। डोंगरगढ़ की खालसा पब्लिक स्कूल का प्रदर्शन भी बेहतर रहा। इसे सुखद आश्चर्य कहना चाहिए। कोरोना के भय से कभी आफलाईन तो कभी आनलाईन शिक्षा के चलते विद्यार्थियों ने बाजी मारी।
इन आंकड़ों व परिणाम को देखते हुवे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि छात्र चाहे वे गांव देहात के हों या शहरों के, किसी भी कीमत पर प्रतिस्पर्धा में पिछडऩा नहीं चाहते। उन्हें यह एहसास है कि अच्छे जौब का रास्ता अच्छे नंबरों से ही होकर जाता है। इसलिए 10 वीं और 12वीं जैसे बोर्ड के इम्तीहानों में फेेल होना मंजिल तक पहुंचने में अड़ंगा ही है।
छात्रों की मेहनत और कामयाबी वाकई बेमिसाल है, जिस पर फख्र करना स्वाभाविक बात है। लेकिन यह बात, कामयाब छात्रों का आंकड़ा देखते व उनके भविष्य के लिहाज से कम चिंताजनक भी नहीं है। देश में ‘‘जौबलैस ग्रोथ’’ बढ़ते रोजगार व जीडीपी ग्रोथ के कथन से पर्दा उठा रही है। देश में इस वक्त बेरोजगारों की संख्या करोड़ों में है। जिनमें से अधिकांश शिक्षित बेरोजगार हैं। स्किल डैवलपमेंट व लघु उद्योगों का विस्तार कछुवा गति से हो रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान पी.एम. मोदी ने हर साल एक करोड़ युवाओं को नौकरी देने का वादा किया था और कहां अब हर साल लाखों की लगी लगाई नौकरियां भी जा रही है। नोटबंदी और जीएसटी के फैसले ने तो ‘‘आग में घी’’ डालने का काम किया है।

बहरहाल, फिलहाल इतना ही कि एक ओर पढ़ाई लिखाई जरूरत से ज्यादा महंगी हो चली है। यह बात सुबूत की मुहताज नहीं है और न ही यह कि शिक्षा अब, वजहें जो भी हों, पूरी तरह कारोबार हो चली है।
शिक्षा का भारी भरकम खर्च, अधिकतर मां-बाप उठा भी रहे हैं तो इस के पीछे उनकी मंशा समाज को एक अच्छा नागरिक देने की होती है, जो शिक्षित होकर कहीं अच्छी नौकरी कर देश की तरक्की में अपना योगदान देकर सम्मानजनक जीवन जिएगा। अब, उन मां-बापों पर क्या गुजर रही है, ये तो वे ही जानते हैं। अपने बेरोजगार युवा बेटे या बेटी की हालत देखते हुवे उन का कलेजा मुंह को आने लगता है।

जो इतिहास में दफ्न हुवे, उन ‘‘दिग्विजय’’ का नाम चल निकलेगा?
भूतकाल को खरीद सके, इतनी सम्पत्ति किसी के पास नहीं है। सुब्रहणयं भारती (तमिल कवि) की चार पंक्तियां प्रासंगिक है।
बीता हुआ न लौटेगा रे मूरख मन
तुम अतीत के पीछे अनवरत
विनाशकारी व्याकुल खाई में गिरकर
क्लेश मत पावो, अतीत को मत ध्यायो।
इसी के विपरीत, कवि जयशंकर प्रसाद की दो पंक्तियां भी गौरतलब है-
बस गई एक बस्ती है स्मृतियों की इसी हृदय में,
नक्षत्रलोक फैला है जैसे इस नील निलय में।
हमारे नाम के गांव को नगर में तब्दील करने याने राजनांदगांव को दिग्विजय नगर के नाम पर रखने भाई दुष्यन्त दास भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। तब उक्त द्वय कवियों की पंक्तियां मानस द्वार पर दस्तक देकर प्रवेश कर गई। दिग्विजय अब दुनिया में नहीं है। दुनिया छोड़े उन्हें तकरीबन 60 साल हो गए। उनकी मृत्यु संदेहास्पद थी। खून हुआ था कि खुदकुशी की थी? लाश का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। यह रहस्य आज भी बरकरार है। उनके नजदीक रहने वाले लोग अमीर हो गए। राजनीति में चाचा जी ने भाग्य आजमाया और मंत्री भी बने। वे उनके काफी करीब थे। दिग्गी राजा की सम्पत्तियां लालबाग सहित एक-एक करके बिकती चली गई। इसका प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लाभान्वित होने वालों का अंतिम जीवन बड़ा दु:खदायी रहा। कहा जाता रहा है कि बैरागी की सम्पत्ति-माल किसी को फलता नहीं। यह सच साबित हुआ।

खैर, राजनांदगांव रियासत का अंत बड़ा ही दु:खद और दुष्परिणाम देनें वाला रहा। जब कि, इसका इतिहास बड़ा गौरवशाली था। किन्तु, अंतिम वारिस रहे राजा दिग्विजय सिंह किन्ही ट्रेजेडी किंग से कम नहीं थे। सुख उनके नसीब में ही नहीं था। उनके करीबी आसपास रहने वाले ही उनके लिए अशुभ साबित हुवे। महान दार्शनिक शेक्सपियर ने कहा है- नाम में क्या रखा है? गुलाब का नाम गुलाब नहीं रहेगा तो क्या वह सुगंध नहीं देगा?
इस शहर के नाम के अंत में गांव रहे या नगर? कोई फर्क नहीं पड़ता। शहर को विकास की तलब है। संस्कारधानी के नागरिक पहले बहुत जागरूक थे और अपने हक के लिए एकजूट होकर विरोध करते थे। नागरिक मंच होता था। गैर राजनीतिक सभ्रांत प्रबुद्ध नागरिक सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अपने साथ लेने विवश कर देते थे। किन्तु, अब वो बात कहां? क्या इस विडम्बना पर विचार करने चिन्तन होगा?

अनाम चार पंक्तियां कहती हैं-
चलता है दो चक्र से येे यंत्र है
एक जनता है और दूसरा तंत्र है
रखे समतौल दोनों चक्र को
लोकतंत्र का और दूसरा क्या मंत्र है?

  • शहरवासी

दीपक बुद्धदेव

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