देशब्यूरोक्रेसी

बेकाबू और बेलगाम

अभी का जमाना सोशल मीडिया और उस पर शुरू घमासान का है। उस पर किसी प्रकार का न अंकुश है, न ही मर्यादा। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति रमण ने इस मुद्दे पर बोलते हुए न्यायाधीशों के मन की पीड़ा कही है। दिल्ली में एक पुस्तक विमोचन समारोह में न्यायमूर्ति रमण ने कहा, ‘देश के न्यायाधीश सोशल साइट्स की जननिंदा और तथ्यहीन गॉसिप के शिकार हो रहे हैं।’ कानून ने ही न्यायाधीशों के मुंह को बांध रखा है और ऐसे हालात बने हैं। न्यायाधीश रमण के उद्गार में यह भाव सामने आया। न्यायाधीश रमण ने जो कुछ कहा, वह सही ही है और थोड़े-बहुत फर्क के साथ आज हर क्षेत्र में यही स्थिति है। इसके पहले भी ‘गॉसिप’ होता ही था। पुरातन काल में भी यह अपवाद नहीं रहा। महाभारत के युद्ध में ‘अश्वत्थामा’ नामक हाथी मारा गया या द्रोणपुत्र? इस बारे में धर्मराज युधिष्ठिर ने जो ‘नरोवा कुंजरोवा’ के रूप में अपना पक्ष रखा, वह एक प्रकार से ‘गॉसिप’ जैसा ही था। इसलिए यह सब पहले से ही शुरू है। सिर्फ उसका फैलाव मर्यादित था। जो भी ‘मीडिया’ था, वह आज के जैसा ‘सोशल’ नहीं था इसलिए गॉसिप या खुसुर-फुसुर मर्यादित थी। फिर दूरदर्शन, उसके बाद न्यूज चैनल और मनोरंजन के चैनल शुरू होते गए और सीमित गॉसिप के भी पर निकल आए। अगले पांच-छह वर्षों में तो इन चैनलों के साथ ‘सोशल मीडिया’ भी आ गया और गॉसिपिंग के नाम पर निंदा के घोड़े दौड़ने लगे। उस पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं रहा। कोई भी मामला हो, सोशल साइट्स और सोशल मीडिया क्रिया-प्रतिक्रियाओं से भरा होना चाहिए, मानो ऐसा नियम ही बन चुका है। इसमें जिम्मेदारी की बजाय अधिकार की बात होने के कारण यहां का हर काम बेकाबू और बेलगाम होता है। गत कुछ दिनों से महाराष्ट्र और मराठी माणुस इसका अनुभव ले रहा है। मुंबई और महाराष्ट्र को सुनियोजित तरीके से बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का बाकायदा उपयोग किया जा रहा है। इस गॉसिपिंग का और इस तरीके पर आक्षेप लेने पर तुम्हारी वह अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता की काली बिल्ली आड़े आ जाती है। आवाज दबाने का शोर मचाया जाता है। न्या. रमण का इशारा सोशल मीडिया पर निरंकुश टीका-टिप्पणी की ओर है। कानूनन हाथ बंधे होने के कारण उसका प्रतिवाद करने में न्याय-व्यवस्था के हाथ बंधे हुए हैं। उन्होंने इस बंधन की भी बात कही है। सोशल साइट्स और मीडिया की खबरों में न्यायाधीशों को झूठे अपराधों का सामना करना होता है। हम बड़े पदों पर हैं इसलिए ‘त्यागमूर्ति’ बनकर झूठी जननिंदा सहन करनी पड़ती है। इसमें कानूनी बंधन होने के कारण खुद का पक्ष भी नहीं रखा जा सकता, ऐसी टीस जब न्या. रमण जैसे वरिष्ठ न्यायाधीश व्यक्त करते हैं, तब उसके पीछे की बात को समझना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे ने भी न्या. रमण के सुर में सुर मिलाया है और कहा है कि इस त्याग का ध्यान रखते हुए सबको न्याय-व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश की आशा सही ही है। सरकारी बंधनों के कारण झूठी टीका-टिप्पणी को सहन करना कुछ यंत्रणाओं के लिए अपरिहार्य भले हो, फिर भी सोशल मीडिया पर उधम मचानेवालों को इस अंकुश का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति रमण को यही बताना रहा होगा। हालांकि, रमण ने जो टीस व्यक्त की है, वह न्यायाधीशों तक के लिए सीमित भले हो लेकिन आजकल गॉसिपिंग से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। ना क्षेत्र का बंधन है, ना टीका-टिप्पणी की मर्यादा। सोशल मीडिया पर सक्रिय होनेवाले सभी लोग सचेत रहते हैं, ऐसा नहीं है बल्कि अधिकतर लोग किसी भी तरह सचेत नहीं रहते। न्या. रमण द्वारा व्यक्त की गई पीड़ा महत्वपूर्ण साबित होती है। सवाल यह है कि उसे समझते हुए सोशल मीडिया के बेलगाम लोग कुछ समझदारी दिखाएंगे क्या? सामना

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